प्रभु श्री कृष्ण को गायों से अत्यधिक प्यार था या यों कहें कि गायों के बिना श्रीकृष्ण लीला की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। ब्रज मे जब जतीपुरा में श्री गोवर्द्धन पर्वत पर नन्द नन्दन प्रभु श्रीनाथजी का प्राकट्य हुआ और जिस घूमर गाय के थन से दूग्ध धारा अविरल बह कर प्रभु श्रीनाथजी को सेवित होती है उसी वंश की गाय और नंद वंश की गायों से बनी प्रभु श्रीनाथजी की गौशाला श्रीनाथद्वारा में श्रीनाथजी के मंदिर से लगभग 2 किमी की दूरी पर नाथद्वारा से चित्तोडगढ की और जाने वाले स्टेट हाईवे पर (मावली से तकरीबन 26 किमी दूर और डबोक, उदयपुर हवाई अड्डे से तकरीबन 45 किमी दूरी पर) बनी हूई है। यह मात्र एक गौशाला ही नहीं है, श्रीकृष्ण प्रभु की यह परम आदरणीय लीला स्थली है, यहॉं विचरती गॉमातायें स्वर्ग सा नजारा उत्पन्न करती है, ऐसा लगता है मानों साक्षात प्रभु श्रीकृष्ण कहीं गायें चराते हमें दर्शन दे क़ृतार्थ करेंगे।
यहॉं की परिपाटी और परम्परा को जान कर हर कोई आश्चर्य चकित रह जाता है। ललिता और कपिला गायें साक्षात जननी लगती है। गॉमाताऍं दूहारी के समय सिर्फ नाम से पुकारने मात्र से श्रीजी सेवा में जाने वाले दूध हेतु अपने आप को उपस्थित कर अपने थनों से दूग्ध धार स्वत ही प्रवाहित करने लग जाती है। ऐसा अलौकित अनुपम द्श्य उत्पन्न होता है जैसे जतीपुरा में होने वाले प्रभु श्रीनाथजी के अनुपम प्राकट्य की झांकी पुन सजीव हो उठी हो।
यहॉं से श्रीजी सेवा में जाने वाला प्रतिदिन का सैंकडों मन दूध श्रीजी के बाल सखा ग्वाल-बाल अपने कंधे पर मटकियों में भर कर मंदिर तक ले जाते हैं। प्रभु का अपने सखाओं से अलौंलिक प्रेम और कहीं देखना हो तो प्रभु श्रीनाथजी की गौशाला में एक बार हमें अवश्य दर्शन को जाना चाहिये। प्रभु सेवा में जाने वाले दूध को ले जाने से पूर्व ही ग्वाल-बालों को पहले उसकी सेवगी (मेहनताना) प्रसाद के रूप में एक सेर दूध पीने को मिल जाता है, उस प्रसाद को पाकर सेवक अपने को धन्य मान पीकर फिर प्रभु भक्ति और अपनी मस्ती लीन होकर एक मन वजनी गागर (मटकी) को अपने कांधे पर रख चुटकियों में मंदिर पहँच कर विश्राम करता है। ऐसी अलौलिक लीला स्थली को धन्य धन्य है। मेरा कोटि-कोटि प्रणाम।